हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा. आज के दिन ये लाइन सदर मंडी विधानसभा के उन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर सटीक बैठती है जो वर्तमान विधायक और पंचायती राज मंत्री के इर्द गिर्द थे और मंत्री साहब के लिए जी जान से वोट मांग रहे थे. लेकिन पिछले कल अनिल शर्मा ने अपने पूर्व केंद्रीय मंत्री पिता और पुत्र के साथ भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया.
पहले कांग्रेस, फिर अपनी घर की पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस फिर दोबारा कांग्रेस और अब भाजपा. इस तरह ये मंडी के शर्मा खानदान की तीसरी पलटी है.
हालाँकि राजनीती में पलटियां मरने का रिवाज़ सदियों पुराना है. हर चुनाव चाहे वह विधानसभा का हो, लोकसभा या पंचायत का ही क्यों न हो, नेताओं का ये दल छोड़कर वो दल में जाना चला ही रहता है. एक तरह से ज़रूरी ही लगने लग गया है ये सब. जब तक कोई एक पार्टी छोड़ के दूसरी में न जाये तब तक लगता ही नहीं चुनाव हो रहे हैं.
लेकिन ये अदला बदली इतनी आसान नहीं है जितनी दिखती है. कितना मुश्किल होता होगा विरोधी पार्टी और उनके नेताओं के खिलाफ कही गयी बातों को भुला कर उनसे दोस्ती बनाना और उनके गुण गाना. और जिनको पहले अच्छा कहते थे उनको बुरा, भ्रष्ट कहना होगा और कहना ही होगा. मतलब साफ है इस कृत्य का नैतिकता से कोई लेना देना नहीं है जो भी है राजनीती से है.
खैर नेता तो चले जाते हैं, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. उन्हें जो चाहिए होता है वो मिल ही जाता है. जितना बड़ा नेता उतना बड़ा पद. अब जैसे बात अनिल शर्मा की हो रही है तो उनको भी भाजपा का टिकट मिलना तय है.
लेकिन यहाँ पिसता कार्यकर्ता है, दोनों ओर का. और वो नेता जो बरसों तक इस आस में पार्टी की सेवा में लगे रहते हैं कि कभी तो पार्टी भी उनको मेवा देगी. लेकिन तभी दूसरी पार्टी का एक नेता आ जाता है. जिसने वहां भी मेवा खाया था यहाँ भी वही खायेगा. क्योंकि उसको आदत है मेवा खाने की. जब उसको लगता है की इस पार्टी में रहकर कुछ खास मेवा नहीं मिलेगा तो चलो पार्टी ही बदल देते हैं. और एक नेता मेवे के इंतज़ार में दिल पसीज कर रह जाता है. वो उस काबिल भी नहीं रह जाता की वो भी पलटी मार कर कुछ मेवा की आस करे.
यही हल होता है कार्यकर्ता का. कार्यकर्ताओं के लिए ये धर्मसंकट से काम नहीं. एक ईमानदार कार्यकर्ता अपने नेता को अच्छा और विरोधी नेता को बुरा सिद्ध करने के लिए अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों इत्यादि से लगातार जंग लड़ता रहता है. कई बार तो हदें पर करके, लड़ने तक को तैयार हो जाता है. अब नेता के दल बदल में कार्यकर्ता के पास भी दो विकल्प रह जाते है. नेता के वफादार नेता के साथ हो लेते है मेवे में अपना हिस्सा लेने और पार्टी के वफादार वहीँ रह जाते.
अब जब वही नेता जिसके बारे में रोज़ भला बुरा कहते थे, हमारे ऊपर आकर बॉस बन जाये और पार्टी कहे की अब इसको अच्छा बोलो और उसको बुरा तो भाई उन लोगों के पास क्या मुंह लेकर जायेंगे. कि भाई कल तक वो खराब था आज सही हो गया या कल तक सही था दूसरी पार्टी में जाकर खराब हो गया.
खैर ये सब चला रहेगा, चला रहेगा तो रोमांच बना रहेगा. हम लिखने वालों के लिए भी और आप पढ़ने वालों के लिए भी. लेकिन नैतिक दृष्टि से ये ठीक नहीं. वैसे राजनीती में नैतिकता?? छोडो भाई!!
वैसे अनिल शर्मा के भाजपा में जाने के साथ भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत और कांग्रेसी युक्त भाजपा कि ओर एक और कदम बढ़ा लिया है. कांग्रेसी युक्त तो हो ही गयी कांग्रेस मुक्त के लिए थोड़ा सा इंतज़ार.